स्वामी सहजानन्द सरस्वती: क्या इतिहास खुद को दुहरा पाएगा?

22 फरवरी - स्वामी सहजानन्द सरस्वती की जन्म जयंती पर विशेष












 

अमूमन इतिहास खुद को दुहराता है, लेकिन स्वामी सहजानन्द सरस्वती का व्यक्तित्व और कृतित्व अब तक अपवाद स्वरूप है। आगे क्या होगा भविष्य के गर्त में है, पर वर्तमान को उनकी याद सताती है। भले ही उनको गुजरे जमाने हो गए, फिर भी इतिहास खुद को दुहरा नहीं पाया! जबकि लोगबाग बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं किसी समतुल्य नायक का, जो उनकी जीवनधारा बदल दे। किसानी जीवन की सूखी नदी में दखल देने वाली व्यवस्था की रेत और छाड़न को किसी अग्रगामी चिंतनधारा से ऐसे लबालब भर दे कि पूंजीवाद और साम्यवाद के तटबंध बौने पड़ जाएं समाजवादी उमड़ती दरिया देख।

   आप मानें या नहीं, लेकिन भारतीय राजनीति में जब भी किसानों की चर्चा होती है तो उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर पहली बार संगठित करने वाले दंडी स्वामी स्वामी सहजानन्द सरस्वती की याद बरबस आ जाती है। यदि यह कहा जाए कि स्वामी जी किसानों के पहले और अंतिम अखिल भारतीय नेता थे तो गलत नहीं होगा। दरअसल, वो पहले ऐसे किसान नेता थे जिन्होंने किसानों के सुलगते हुए सवालों को स्वर तो दिया, लेकिन उसके आधार पर कभी खुद को विधान सभा या संसद में भेजने की सियासी भीख आमलोगों से कभी नहीं मांगी। इसलिए वो अद्वितीय हैं और अग्रगण्य भी।

 

खासकर तब जब भारतीय किसानों की दशा और दिशा को लेकर हमारी संसद और विधान मंडलें गम्भीर नहीं हैं। त्रिस्तरीय पंचायती राज संस्थाएं भी अपने मूल उद्देश्यों से भटक चुकी हैं। ये तमाम संस्थाएं जनविरोधी पूंजीपतियों के हाथों की कठपुतली मात्र बनी हुई हैं। ये बातें तो किसानों की करती हैं, लेकिन इनके अधिकतर फैसले किसान विरोधी ही होते हैं। सम्भावित किसान विद्रोह से अपनी खाल बचाने के लिए इनलोगों ने किसानों को जाति-धर्म में इस कदर बांट रखा है कि वो अपने मूल एजेंडे से ही भटक चुके हैं। इसलिए उनकी आर्थिक बदहाली भी बढ़ी है। सच कहा जाए तो जबसे किसानों में आत्महत्या का प्रचलन बढ़ा है, तबसे स्थिति ज्यादा जटिल और विभत्स हो चुकी है। इसलिए स्वामी सहजानन्द सरस्वती की याद बार बार आती है।

 

स्वामी जी का सियासी कद नेहरू और गांधी जी के समतुल्य है। लेकिन उन्हें मृत्यु के उपरांत भारत रत्न से नवाजे जाने की जरूरत नहीं समझी गई। ऐसा इसलिए कि किसानों की आवाज जन्मजन्मांतर तक दबी रहे। वह उनके नाम पर भी आगे अंतस ऊर्जा नहीं प्राप्त कर सके। इस बात में कोई दो राय नहीं कि भारत में संगठित किसान आंदोलन को खड़ा करने का जैसा श्रेय स्वामी सहजानंद सरस्वती को मिला, बाद में उसका हकदार कोई दूसरा नेता नहीं बन सका। ऐसा इसलिए कि सेवा और त्याग स्वामी जी का मूलमंत्र था। अब कोई भी इस मूलमंत्र को नहीं अपना पायेगा, क्योंकि कृषक समाज की प्राथमिकता बदल गई है।

 

आज किसानों के एक बड़े वर्ग के लिए आरक्षण जरूरी है, लॉलीपॉप वाली योजनाएं पसंद हैं, जबकि कृषि अर्थव्यवस्था को हतोत्साहित करने वाले और किसानों का परोक्ष शोषण करने वाले कतिपय कानूनों का समग्र विरोध नहीं। यही वजह है कि खेतों को बिजली, बीज, खाद, पानी, मजदूरी और उचित समर्थन मूल्य दिए जाने के मामलों में निरन्तर लापरवाही दिखा रही सरकारों का कोई ठोस विरोध आजतक नहीं हो पाया है।निकट भविष्य में होगा भी नहीं, क्योंकि अब नेतृत्व के बिक जाने का प्रचलन बढ़ा है। सच कहा जाए तो मनरेगा ने 'गंवई हरामखोरी' को ऐसा बढ़ाया है कि कृषि मजदूरों का मन भी अपने पेशे से उचट चुका है जिससे शिक्षित किसानों के किसानी कार्य बहुत प्रभावित हो रहे हैं।

 

बावजूद इसके, इन ज्वलन्त सवालों को स्वर देने वाला कोई राष्ट्रीय नेता नहीं दिखता, बल्कि किसी अवसरवादी गठजोड़ की झलक जरूर मिलती है। वो भी एक दो संगठन नहीं, बल्कि दो-तीन सौ संगठन मिलकर किसान हित की बात को आगे बढ़ा रहे हैं या फिर अपनी सियासी रोटियां किसी अन्य दल के लिए सेंक रहे हैं, किसी के भी समझ में नहीं आता। इसलिए कहा जाता है कि स्वामी जी के बाद कोई ऐसा किसान नेता पैदा नहीं हुआ जो चुनावी राजनीति से दूर रहकर सिर्फ किसानों की ही बात करे। उनके भावी हितों-जरूरतों की ही चर्चा परिचर्चा करे और उन्हें आगे बढ़ाए।

 

कहने को तो आज प्रत्येक राजनीतिक दल में किसान संगठन हैं लेकिन किसान हित में उनकी भूमिका अल्प या फिर नगण्य है। इस स्थिति को बदले बिना कोई राष्ट्रीय किसान नेता पैदा होना सम्भव ही नहीं है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि दण्डी संन्यासी होने के बावजूद उन्होंने रोटी को भगवान कहा और किसानों को देवता से भी बढ़कर बताया। इससे किसानों को भी अपनी महत्ता का भी पता चला। किसानों के प्रति स्वामी जी इतने संवेदनशील थे कि तत्कालीन असह्य परिस्थितियों में उन्होंने स्पष्ट नारा दिया कि "जो अन्न वस्त्र उपजाएगा, अब वो कानून बनाएगा। ये भारतवर्ष उसी का है, अब शासन वही चलाएगा।।"

 

निःसन्देह, स्वामी सहजानन्द सरस्वती ने आजादी कम और गुलामी ज्यादा देखी थी। इसलिए काले अंग्रेजों से ज्यादा गोरे अंग्रेजों के खिलाफ मुखर रहे। समझा जाता है कि किसानों से मालगुजारी वसूलने की प्रक्रिया में जब उन्होंने सरकारी मुलाजिमों का आतंक और असभ्यता देखी तो किसानों की दबी आवाज को स्वर देते हुए कहा कि "मालगुजारी अब नहीं भरेंगे, लट्ठ हमारा जिंदाबाद।" इतिहास साक्षी है कि किसानों के बीच यह नारा काफी लोकप्रिय रहा और ब्रिटिश सल्तनत की चूलें हिलाने में अधिक काम आया।

 

स्वामीजी का परिचय संक्षिप्त है, लेकिन व्यक्तित्व विराट। हालांकि परवर्ती जातिवादी किसान नेताओं और उनके दलों ने उनके व्यक्तित्व को वह मान-सम्मान नहीं दिया, जिसके वे असली हकदार हैं। यही वजह है कि किसान आंदोलन हमेशा लीक से भटक गया। समाजवादी और वामपंथी नेता इतने निखट्टू निकले की, उनलोगों ने किसान आंदोलन का गला ही घोंट किया। उनके बाद चौधरी चरण सिंह और महेंद्र टिकैत किसान नेता तो हुए, लेकिन किसी को अखिल भारतीय पहचान नहीं मिली, क्योंकि इनकी राष्ट्रीय पकड़ कभी विकसित ही नहीं हो पाई। दोनों पश्चिमी उत्तरप्रदेश में ही सिमट कर रह गए। किसान हित में कोई उल्लेखनीय उपलब्धि भी उनके खाते में नहीं रही।

 

(लेखक सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय में अधिकारी हैं।)