चुनाव का पाकिस्तान कनेक्शन






इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता है कि पड़ोसी अथवा प्रतिस्पर्धी देशों द्वारा दूसरे देशों की आंतरिक व्यवस्था व प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने अथवा उसे अपने मनमुताबिक प्रभावित करने की कोशिशें होती ही रहती हैं। यह इल्जाम रूस पर भी लगा था कि उसने अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव को प्रभावित करने और डोनाल्ड ट्रम्प की जीत सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। हालांकि ना तो इस बात को रूस ने कभी माना और ना ही ट्रम्प ने इसकी तस्दीक की। लेकिन इस तरह के संकेत अवश्य सामने आये जिससे इन खबरों को सिरे से नकारना या झुठला देना संभव ही नहीं है। लेकिन ऐसे प्रयास अथवा हस्तक्षेप इस कदर गोपनीय तरीके से होते हैं कि उनका सुराग ढ़ूढ़ना और पुख्ता तौर पर उसे प्रमाणित करना संभव नहीं हो पाता है। लेकिन भारत और पाकिस्तान के मामले में तो यह पूरी तरह जानी और मानी हुई बात है कि भारत के अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप करने और उसे प्रभावित करने का कोई भी मौका पाकिस्तान के हुक्मरान कतई अपने हाथों से नहीं जाने दे सकते हैं। वैसे भी पाकिस्तान के साथ भारत के औपचारिक रिश्ते कितने ही बदतर क्यों ना हों लेकिन पड़ोसी देश होने के नाते दोनों मुल्कों के अनौपचारिक संबंध कभी एक सीमा के आगे जाकर खराब नहीं होते। खास तौर से दोनों मुल्कों के खास व आम लोगों के आपसी रिश्तों में दोनों मुल्कों के औपचारिक संबंधों का कभी प्रभाव नहीं पड़ता है। तभी तो व्यक्तिगत से लेकर सांस्कृतिक और व्यावसायिक संबंध सरहदों की बंदिशों से अछूते भी रहते हैं और बेहद प्रभावकारी भी।

पाकिस्तान का भारत में कितना दखल है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बेशक दोनों मुल्कों के बीच क्रिकेट के रिश्ते में दूरी बनी हुई है लेकिन अन्य खेलों के मामले में ऐसा नहीं है। बाकी सभी खेल में दोनों मुल्क बदस्तूर मंच व मैदान साझा कर रहे हैं। इसी प्रकार उरी के आतंकी हमले के कारण जागी संवेदना से पूर्व तक पाकिस्तानी कलाकारों का भारतीय फिल्म उद्योग में काफी बोलबाला था और आज भी भारतीय कलाकारों का काफी बड़ा वर्ग पाकिस्तान के साथ अपने रिश्ते कायम रखे हुए है। इसी प्रकार पुलवामा में सुरक्षा बलों के काफिले पर हुए आत्मघाती आतंकी हमले के बाद से लेकर भारत की ओर से बालाकोट में चल रहे जैश के आतंकी शिविरों पर किये गये एयर स्ट्राइक के बाद के कुछ दिनों तक की बात छोड़ दें तो दोनों मुल्कों के व्यावसायिक संबंधों में कोई बड़ी दूरी नहीं आई है। सरकार अधिकारियों के स्तर पर भी करतारपुर काॅरिडोर के मामले में बातचीत चल ही रही है और नदी जल बंटवारे के मामले में पर्दे के पीछे की बैठकों में कोई कमी नहीं आई है। यानि समग्रता में देखें तो दोनों मुल्कों के बीच दूरी सिर्फ औपचारिक मामलों में ही है वर्ना अंदरूनी मामलों में दोनों की करीबी बदस्तूर बरकरार है। जाहिर है कि जब इस हद तक दोनों मुल्कों में करीबी है तो दोनों देशों के लोगों का प्रभाव भी यहां और वहां के हर मामले में पड़ता ही है। तभी तो भारत में जब नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में भाजपा की सरकार बनी तो कांग्रेसी नेताओं का पाकिस्तान में जाकर दिया गया बयान काफी चर्चा में आया था कि मोदी को बदलने के लिये पाकिस्तान को भी पहल करनी होगी। इसी प्रकार पाकिस्तान में हुए आम चुनाव में इमरान खान का वह नारा निर्णायक रहा कि ‘जो मोदी का यार है, गद्दार है गद्दार है।’ लेकिन भारत के मौजूदा चुनाव पर पाकिस्तान का रंग जितना गहरा दिखाई पड़ रहा है वैसा इससे पहले कभी नहीं देखा गया। इस बार तो पाकिस्तान के साथ भारत के रिश्तों में आई तल्खी और मोदी सरकार की अगुवाई में पाकिस्तान के खिलाफ हुई ठोस सैन्य कार्रवाई ने भारत के चुनाव का रूख ही मोड़ दिया है। वर्ना पुलवामा में हुए आत्मघाती आतंकी हमले से पूर्व तक तो यही कयास लगाया जा रहा था कि इस बार के चुनाव में मोदी की बुरी तरह मिट्टी पलीद होने वाली है।

 पुलवामा के बाद की स्थिति में राष्ट्रवाद का ऐसा खुमार छाया कि बाकी तमाम मसले और मुद्दे हवा हो गए। ऐसे में बौखलाए और तिलमिलाए विरोधियों ने तो यहां तक कह दिया कि मोदी सरकार की वापसी सुनिश्चित करने के लिये ही पुलवामा का हमला जान बूझकर होने दिया गया और इस मामले में पाकिस्तान के साथ सांठ-गांठ हुई है। दूसरी ओर पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी का यह बयान भी सामने आया कि भारत की ओर से पाकिस्तान पर 16 से 20 अप्रैल के बीच बड़ा हमला होने वाला था। अब इस मामले को अगर समग्रता में देखें तो पाकिस्तान की ओर से भारत की चुनावी प्रक्रिया में हस्तक्षेप किये जाने और उसे प्रभावित करने का प्रयास किये जाने की आशंका को तो बल मिलता ही है। क्या पाकिस्तान यह बताने का प्रयास कर रहा है कि अगर पुलवामा की घटना नहीं भी होती तो भारत में चुनाव जीतने के लिये मोदी सरकार की ओर से सरहद पर जंग का माहौल बनाया जाता? निश्चित ही यह निहायत अहमकाना और बेवकूफाना आरोप है जिसका सीधा मकसद भारत में मोदी विरोधियों को मजबूती देना और विश्व मंच पर खुद को भारत से पीड़ित दर्शाने का प्रयास ही है। इसी प्रकार पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान का यह कहना भी शरारतपूर्ण ही है कि भारत में मोदी सरकार की वापसी दोनों मुल्कों के लिये बेहतर रहेगी क्योंकि अगर कांग्रेस की सरकार आई तो उसमें इतना नैतिक साहस ही नहीं होगा कि विवादित मसलों पर कोई ठोस समझौता कर सके। अब इमरान के बयान को निर्मला सीतारमण ने कांग्रेस के साथ उनकी सांठ गांठ का नतीजा करार देकर अलग रंग देने की कोशिश की है। जाहिर है कि पाकिस्तान की ओर से जितने भी बयान और प्रयास सामने आए हैं उससे इतना तो साफ है कि वह कतई मोदी सरकार की वापसी नहीं चाह रहा है। अब सवाल सीधा है कि अगर मोदी को सत्ता में वापसी करने से पाकिस्तान रोकना चाह रहा है तो वह आखिर किसे भारत की सत्ता में देखना चाहता है। साथ ही सवाल यह भी है कि जिसे वह मोदी का विकल्प बनाना चाह रहा है उसे मजबूती देने के लिये वह क्या प्रयास कर रहा है और इधर से उसके उन हमदर्दों का क्या रूझान है। यानि सवाल तो उठ रहे हैं लेकिन जवाब तो जब रूस और अमेरिका के मामले में नहीं आया तो इस पर कैसे आ सकता है।